अगर आप इतिहास में रूचि रखते हैं तो 1962 का भारत‑चीन संघर्ष आपका ध्यान जरूर खींचेगा। दो साल से कम समय में सीमाओं पर बड़े पैमाने पर टकराव हो गया, जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए और आज भी इस युद्ध की सीख हमारे सुरक्षा नीतियों में झलकती है। चलिए समझते हैं कि यह जंग क्यों शुरू हुई, कौन‑कौन सी लड़ाइयाँ अहम थीं, और इसका दीर्घकालिक असर क्या रहा।
सिनो‑इंडियन युद्ध की जड़ें 1950‑60 के दशक में ही दबी हुई थी। भारत ने 1954 में पाँच साल का सीमा समझौता किया, लेकिन चीन ने 1960 में उसे रद्द कर दिया और अपने मानचित्र में ‘एडमिरल काउंटी’ को जोड़ लिया। इस बदलाव से दोनों देशों की सीमाओं पर अस्पष्टता बढ़ी, खासकर एरिया ऑफ़ डिस्प्यूट (Aksai Cantonment) में। जब भारत ने अपनी सीमाएँ स्पष्ट करने के लिए कई टुकड़े‑टुकड़े सर्वे शुरू किए, तो चीन ने उन्हें चुनौती देना शुरू कर दिया।
एक और बड़ा कारण था दोनों देशों की रणनीतिक सोच का टकराव। चीन को अपने उत्तर‑पश्चिम में सुरक्षा चाहिए थी, जबकि भारत अपनी स्वतंत्रता के बाद एक मजबूत पड़ोसी चाहता था। इन बुनियादी असहमति ने तनाव को बढ़ाया और अंततः 20 Oct 1962 को चीनी सेना ने बड़े पैमाने पर आक्रमण किया।
पहला बड़ा टकराव अर्दुंग‑नालिया में हुआ, जहाँ भारतीय पैंथर टैंक ब्रिगेड ने बहादुरी से सामना किया लेकिन भारी नुकसान उठाना पड़ा। उसके बाद चेंगडू (अंग्लो‑हिल) की लड़ाई आई, जो भारत के लिए एक मोड़ साबित हुई—इसी में चीन ने तेज़ी से 2 किलोमीटर आगे बढ़ते हुए भारतीय पोस्टों को हटाया। कुल मिलाकर 10 बड़े‑बड़े क्षेत्रों पर नियंत्रण मिला था चीनी पक्ष को, जबकि भारत ने लगभग 3 हजार वर्ग किलोमीटर की जमीन खो दी।
युद्ध के बाद दोनों देशों ने एक-एक कदम पीछे हटते हुए सीमा पर ‘लाइन ऑफ़ कंट्रोल’ (LoC) तय किया। इसने आगे चलकर कई बार तनाव को कम करने में मदद की, लेकिन कभी‑कभी छोटे‑छोटे झड़पें फिर भी देखी गईं। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से भारत ने बहुत कुछ सीखा—सुरक्षा बलों का आधुनिकीकरण, बौद्धिक तैयारी और विदेश नीति में स्पष्टता। चीन ने भी इस जंग को एक सीख माना और बाद में अपने सशस्त्र बलों की रणनीति बदल दी।
आज 1962 के युद्ध की यादें हमारे स्कूल‑कॉलेज की किताबों से लेकर फिल्म और डॉक्यूमेंट्री तक हर जगह मिलती हैं। अगर आप इस इतिहास को गहराई से समझना चाहते हैं, तो राष्ट्रीय अभिलेखागार में उपलब्ध डाक्यूमेंट्स और दूतावास के आधिकारिक बयानों को देख सकते हैं—वहां आपको कई अनकहे तथ्य मिलेंगे जो अक्सर मीडिया में नहीं दिखते।
संक्षेप में कहा जाए तो 1962 का युद्ध सिर्फ एक सीमाई झड़प नहीं, बल्कि दो देशों की विचारधारा और रणनीतिक सोच का टकराव था। इसका असर आज भी हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा के ढांचे में महसूस किया जाता है, इसलिए इस इतिहास को याद रखना जरूरी है।
पूर्व भारतीय केंद्रीय मंत्री मणि शंकर अय्यर ने 1962 के चीन युद्ध में भारत की हार के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की 'फॉरवर्ड पॉलिसी' को जिम्मेदार ठहराते हुए विवाद उत्पन्न कर दिया है। उनके बयान की विपक्षी दलों द्वारा कड़ी आलोचना की गई है, विशेषकर भाजपा द्वारा।
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